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मुनिसंस्था के नियम]
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यथाशक्ति चेष्टा ही पूर्ण रूप में पालन करना कहलाता है।
___आजकल तो प्रतिक्रमण पाठ में जीवों के भेद-प्रभेद गिनाकर उनके कुल और योनियों की गिनती बताकर सबसे क्षमा मांग ली जाती है । निःसन्देह इसके मूल में सर्व-जीव-समभाव की भावना है, परन्तु आज तो यह क्रिया ऐसी ही है जैसे कि किसी बीमार की बीमारी दूर करने के लिये उसके शरीर को चारों तरफ झाडू से माड़ देना । शरीर के चारों तरफ झाडू फेर देने से बीमारी नहीं मड़ जाती, उसी प्रकार प्रतिक्रमण पाठ की झाडू फेरने से अपराध नही झड़ जासे । अपराध-शुद्धि के लिये हमें अपराध पर ही झाड फेरना चाहिये । उस समय दुनियाँ भर की गिनती गिनाना वास्तविक अपराध को चिकित्सा के बाहर कर देना है, अर्थात् उस पर उपेक्षा कर जाना है।
इन जीवों की गिनती गिनाने में अन्धविश्वास से काम लेना पड़ता है । जैन-शास्त्रों में प्राणि-शास्त्र तथा स्वर्ग नरक आदि का जो वर्णन है, उसको विश्वास के साथ ताज़ा रखना पड़ता है, परन्तु इस विषय में नई-नई खोजें हुई हैं-हो रही है-होंगी, और उनसे वर्तमान मान्यताओं में बहुत कुछ परिवर्तन भी पड़ सकता है । इसरिये आवश्यक मालूम होता है कि प्रतिक्रमण सरीखे आत्म-शोधक कार्य में से प्राणि-शास्त्र की चर्चा को अलग कर दें । साधारणतः एक वाक्य में सर्व प्राणियों का स्मरण कर लें। परन्तु यहाँ तक का सारा कार्य तो एक प्रकार की भूमिका हुई । सच्चा प्रतिक्रमण करने के लिये तो यह आवश्यक है कि जहाँ अपराध है वहीं उसकी शुद्धि की जाय । यदि हमारे मुंह से किसी के विषय में अनुचित