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[ जैनधर्म-मीमांसा
बहुत अस्वास्थ्यकर हैं उनका त्याग करना ठीक है; परन्तु ऊटपटाँग किसी भी चीज़ का त्याग करना अनावश्यक है । हाँ, अभ्यास की दृष्टि से कुछ भी करो, परन्तु वह सब अपने घर में करो अर्थात् ऐसी जगह करो जहाँ उससे किसी को कष्ट न हो ।
अभ्यास कुछ त्याग नहीं है; किन्तु समय पड़ने पर स्याग किया जा सके- इसके लिये वह प्रारम्भिक व्यायाम है । परन्तु दूसरे के यहाँ जाकर इस व्यायाम के प्रदर्शन की कोई ज़रूरत नहीं है, बल्कि दूसरों को कष्टप्रद होने से हेय है । सबसे बड़ा त्याग तो यह है कि मोके पर जो कुछ मिल जाय उसी से प्रसन्नता - पूर्वक अपना काम चला लेना । मैं यह नहीं खाता, वह नहीं खाता, इत्यादि प्रतिज्ञाओं की जरूरत नहीं है, किन्तु मैं यह भी खा सकता हूँ ( अर्थात् प्रसन्नतापूर्वक उससे अपनी गुज़र कर सकता हूँ), वह भी खा सकता हूँ-इत्यादि प्रतिज्ञाओं की ज़रूरत है । स्याग सिर्फ उन्हीं चीज़ों का करना चाहिये, जो अन्याय से पैदा होती है या प्राप्त होती हैं ।
अगर किसी को त्याग करना हो तो उसे जाति की दृष्टि से त्याग न करना चाहिये; किन्तु संख्या की दृष्टि से त्याग करना चाहिये । एक आदमी ने दस शाकों का त्याग कर दिया, परन्तु प्रतिदिन पाँच-सात तरह की शाक खाता है - इसके बिना उसका काम नहीं चलता, किन्तु दूसरे आदमी ने किसी भी शाक का त्याग नहीं किया किन्तु वह प्रतिदिन कोई भी एक-दो शाक खाता है तो पहिले की अपेक्षा दूसरा श्यागी है । इतना ही नहीं किन्तु पहिले को हम त्यागी