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मुनिसंस्था के नियम ]
[२०१ संगीत आदि मनाविनोद के त्याग की भी आवश्यकता महीं है, परन्तु उसमें इतनी आसक्ति न हो जो कर्तव्यच्युत होना पड़े । रोगी की सेवा छोड़कर, अपने हिस्से का जीवनोपयोगी काम छोड़कर या और आवश्यक कर्तव्य छोड़कर संगीत सुनना या कोई खेल देखना अनुचित है।
धर्म और अर्थ के समान काम भी जीवन में आवश्यक तत्व है । व्यर्थ ही अपने चेहरे को मनहूस बनाये रहना अनुचित है। फिर भी काम का सेवन-धर्म और अर्थ का विरोधी न होना चाहिये, इसीलिये साधु को इन्द्रिय-दमन की आवश्यकता है । परन्तु जो लोग इन्द्रिय दमन के नाम पर निर्थक कष्ट सहन करते हैं, लगातार अनेक उपवास कर स्वास्थ्य को बिगाड़ लेने हैं और सेवा कराकर दूसरों को परेशान करते हैं, वे इन्द्रियजयी नहीं है । किसी कार्य के
औचित्यानौचित्य का विचार करते समय सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टि से अधिकतम प्राणियों के अधिकतम सुखवाली नीति को कसौटी बनाना चाहिये । एकाध दिन का भोजन बचाने के लिये या कष्टसहिष्णुता की थोडीसी कसरत करने के लिये दूसरों को परेशान कर डालना अधर्म ही होगा।
कई लोग इन्द्रिय-विजय के नाम पर अमुक वस्तुओं का, या रसों का त्याग कर देते हैं, परन्तु अधिकतर यह त्याग निरर्थक ही है। शक्कर न खाकर किशमिश और छुआरा उड़ाना, घी का त्याग करके बादाम का तेल या बादाम का हलुआ खाना अधिक भोग है। हाँ, जो वस्तुएँ हिंसकता की दृष्टि से अभक्ष्य हैं अथवा जो