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जिन-धर्म-मीमांसा
अपेक्षा धन के संग्रहमें अधिक पाप बतलाया है । इसे मूल पाप में गिना है।
शंका-यदि अर्थिक दृष्टि से दो आदमी एक सरीखे हों तो मौज-शौक से जीवन वितानेवाला आपकी दृष्टि में अच्छा कहलाया । परन्तु इस तरह संयम की अवहेलना करना क्या उचित
समाधान--यदि दोनों ईमानदारी से धन पैदा करते हों, दोनों की ऐहिक आवश्यकताएँ समान हो तो इन दोनों में जो रूखा सूखा आदि खाकर बाह्य संयम पालता है और उससे जो पैसे की बचत होती है उसका संग्रह करता है, उसकी अपेक्षा वह अच्छा है जो आई हुई लक्ष्मी का संग्रह करने की अपेक्षा उचित भागों में उसे खर्च कर डालता है । हाँ, अगर उसमें भोग-लालसा इतनी बढ़ जाय कि वह उसके लिये पाप भी करने लगे या उसमें कष्टसहिष्णुता न रहे तो वह पापी कहलायगा । परन्तु अपरिग्रह की दृष्टि से नहीं, किन्तु अन्य पापों की दृष्टि से । स्पष्टता के लिये मैं यहाँ छः श्रेणी किये देता हूँ:
१-जो मनुष्य समाज की सेवा में अपना सर्वस्त्र लगा देता है, बदले में समाज से कुछ नहीं लेता किन्तु पूर्वोपार्जित धन से निर्वाह करता है, अथवा जीवन-निर्वाह के योग्य सामग्री लेता है. किन्तु संग्रह कुछ नहीं करता, वह प्रथम श्रेणी का अपरिग्रही है। इस श्रेणी में महावीर, बुद्ध, ईसा आदि आते हैं। "
२-जो मनुष्य समाज की खब सेवा करता है और उसके बदले में नियमानुसार यथोचित पन लेता है, साधारण गृहस्थ की