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अपरिग्रह]
[१९ मुखी करेगा, बेकारी और गरीबी दूर करेगा।
शंका - धन के भोग करने की बात कहकर आप मनुष्य को विषय का गुलाम बनाते है । एक मनुष्य धन पैदा करने के साथ अगर साविक जीवन व्यतीत करना चाहता है, मौज-शौक की चीज़ोंका उपयोग नहीं करना चाहता तो क्या बुरा करता है !
समाधान--मूलवत की रक्षा न करते हुए उत्तरबत का पालन करना व्रत की दृष्टि से मृतक शरीर के श्रृंगार की तरह है। श्रृंगार अच्छी चीज़ भले ही हो परन्तु मुर्दे का श्रृंगार किस काम का ! इसी प्रकार जब तक मलबत अपस्त्रिह नहीं है तब तक भोगोपभोग परिमाण नामक उत्तरबत का कुछ मूल्य नहीं है । भौगोपभोग सामग्री का परिमाण करने का या लाग करने का यही उद्देश्य है कि बची हुई सामग्री दूसरों के काम आवे, परन्तु अपरिग्रह बत का पालन किये बिना इस उद्देश्य की सिद्धि हो ही नहीं सकती. क्यों कि उस सामग्री को प्राप्त करने का उपाय जो धन है वह तो उसने दबा रक्खा है । तब भोगोपभोग की सामग्री का उपयोग न करने पर भी वह दूसरे को कैसे मिलेगी ! इस प्रकार यह व्रत निष्प्राण हो गया है । तब भोमोपभोग परिमाण के द्वारा इस निष्प्राण बत के सम्हाल-भृङ्गार से क्ण लाभ है ! यही कारण है कि जैनशाखों ने भोगोपभोग परिमाण को मूलवतों में नहीं गिना, इसे अपरिग्रह-बत का सिर्फ सहायक कहा है । महात्मा महावीर ने परिग्रह और भोपभोग परिमाणवत में जो स्थानभेद बतलाया है और अपरिग्रह को जो महत्वपूर्ण स्थान दिया है इससे उनकी अर्थशाब मर्मज्ञता साबित होती है । इसीलिये उनने मौज-शौक की