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[जैनधर्म-मीमांसा
अगर अनेक घरों से भिक्षा लाये तो एक घर के भोजन से कुछ अच्छा ज़रूर है, परन्तु उसमें भी कुछ हानि है; क्योंकि इससे साबु फालतू अन्न भी माँग लाता है। भोजन की मात्रा से भी अधिक माँग लाता है । जब तक स्वादिष्ट भोजन न मिले, तब तक अनेक धरों से माँगता ही रहता है । इसलिये उद्दिष्टस्याग के विधान के जो दो प्रयोजन थे, वे सिद्ध नहीं हो पाते ।
प्रश्न - उद्दिष्ट-त्याग का एक तीसरा प्रयोजन भी है कि इस से साधु पाप की अनुमोदना से बचा रहता है। भोजन तैयार करने में छोटे बड़े अनेक आरम्भ करना पड़ते हैं । अगर वह भोजन साधु के उद्देश से बनाया जाय और साधु उसे ग्रहण करे तो भोजन के आरम्भ का पाप साधु को भी लगेगा । उद्दिष्ट-त्याग में वह पाप सिर्फ गृहस्थ को लगता है, साधु उससे बचा रहता है ।
उत्तर -पहिले हिंसा अहिंसा के विवेचन में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जो आरम्भ जीवन के लिये अनिवार्य है, उसमें यथाशक्ति यत्नाचार करने से पाप नहीं रहता । कोई वस्तु हमारा नाम लेकर बनाई जाय या बिना नाम के बनाई जाय परन्तु अगर हम उसका उपयोग करते हैं तो उसके पाप से हम टिप्स हुए बिना नहीं रह सकते; क्योंकि बिना किसी उद्देश के नहीं किया जाता । भोजन जो बनाया जाता है, उसमें है उसी का उदेश रहता है, भले ही उसका नाम न लिया गया हो। बाजार में बिकनेवाली चीज का पुण्य-पाप उसी के सिर है जो उसे खरीदता है । इसी प्रकार आरम्भ में अगर पाप है तो अनुदि
कोई काम
जो खाता