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[जैनधर्म-मीमांसा
और भी कोई चारित्र की कसौटी कही जाय परन्तु उससे सिर्फ चारित्र अचारित्र का निर्णय होगा; परन्तु चारित्रके बींच में कोई रेखा न होगी, जिसके एक तरफ को महाव्रत कहा जाय ।
हाँ ! व्यवहार चलाने के लिये अगर हम उनमें सीम बाँधना चाहें तो अवश्यही सीमा की कल्पना कर सकते हैं। जैसे पहिले स्वरूपाचरण आदि चारित्र के चार भेद किये गये थे और उनको वासना काल में विभक्त किया गया था, उस प्रकार के व्यवहारोपयोगी भेद बनाये जा सकते हैं।
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परन्तु ऐसे भेद गृहस्थाश्रम और सन्यासाश्रम आदि के साथ जोड़े नहीं जा सकते | गृहस्थ भी एक पक्षसे अधिक वासना न क्वे, यह हो सकता है; और मुनि भी अधिक वासना रक्खे, यह भी हो सकता है । ये आश्रम के भेद तो सामाजिक तथा व्यक्तिगत
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सुविधाओं के लिये बनाये जाते हैं; इनका चारित्र अचारित्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ यह बात अवश्य है कि जिसने सन्यास लिया है. उसे चारित्रवान् अवश्य होना चाहिये । अन्यथा उसे सन्यास लेने का -मुनि बनने का कोई अधिकार नहीं है, वह तो समाज के लिये भार है
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आत्म विकास की चरम सीमा तक दोनों पहुँच सकते हैं । इसलिये इस सीमा पर पहुँचा हुआ गृहस्थ, इस सीमा पर न पहुँच हुए हज़ारों मुनियों से वंदनीय हैं; और इसी प्रकार इस सीमा पर पहुँचा हुआ मुनि इस सीमा पर न पहुँच हुए हज़ारों गृहस्थों से बन्दनीय है ।