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जैनधर्म-मीमांसा
समाज का कंटक समझ कर हटाना ही पड़ता है। जिस समय पहिली श्रेणी के लोग अधिक होते हैं, उस समय म० महावीर म० बुद्ध आदि के समान तीर्थकर होते हैं । और जिस समय दूसरी प्रकृति के मनुष्य अधिक होते हैं, उस समय श्री राम, श्रीकृष्ण आदि सरीख अवतार होते हैं। रावण और कंस के अत्याचारों को दूर करने के लिये म० महावीर और म० बुद्ध सरावे लोग कुछ नहीं कर सकते थे । कोरी क्षमा और कष्ट-सहिष्णुता उनके हृदय को नहीं पिघला सकती थी । सदाशय से किये गये शान्त
आन्दोलनों को भी वे उतनी ही निर्दयता से कुचलते जितनी कि हिंसात्मक आन्दोलनों को कुचलने में की । इतना ही नहीं; किन्तु शान्त मनुष्यों को कायर और क्षुद्र समझकर वे और भी अधिक तांडव करते । इन लोगों को सुधारने के लिये या इनके अत्याचारों से समाज की रक्षा के लिये राम और कृष्ण की आवश्यकता थी महावीर और बुद्ध की नहीं । परन्तु मढ़ता में डूबे हुए जन समाज के उद्धार के लिये रामका धनुष और कृष्णका चक्र या राजनैतिक चतुराई व्यर्थ थी। उनके लिये तो महावीर और बुद्ध के समान कोमल नीति वालों की आवश्यकता थी। कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोमल नीति से काम करने वाले लोगों के सामने एक समाज का समाज अत्याचार करने पर उतारू हो जाता है और वह किसी के जन्म सिद्ध अधिकारों की भी पर्वाह नहीं करता, बल्कि सुधारक पर अत्याचार करने को वह धर्म समझता है और उस पर अत्याचारों द्वारा विजय प्राप्त करने को यह नीति की विजय समझता है । उस समय शान्ति-प्रेमी होने पर भी