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[जैनधर्म-मीमांसा भी ये; परन्तु आज ये नियम प्रगति में बाधक हैं। रेल, जहाज, वायुयान, मोटर आदि साधनों के बढ़ जाने से मनुष्य का कार्यक्षेत्र खब व्यापक हो गया है। और एक समाज-सेवक के लिये कभी कभी लम्बी यात्रा करना आवश्यक हो जाता है, इसलिये इनका उपयोग भी अनिवार्य हो जाता है। उस समय ईर्यासमिति उसके कार्य में बाधक हो जाती है, इसलिये इसे मूल गुणों में नहीं रख सकते।
किसी की रक्षा करने के लिये या और भी किसी तरह की सेवा के लिये रात में चलना पड़े, या जल्दी जल्दी भागना पड़े तो ईर्या-समिति का पालन नहीं हो सकता। इस प्रकार ईर्या-समिति की
ओट में अपनी वह अकर्मण्यता को छुपाता है तथा समाज का नुकसान करता है । कभी कभी किसी शारीरिक बाधा के लिये भी रात्रि में चलना या शीघ्र चलना आवश्यक हो जाता है । उस समय यदि वह ईया-समिति के लिये स्वास्थ्य के नियमों का भंग करे या दूसरों से ईर्या-समिति का कई गुणा भंग करावे तो यह भी अनुचित है, इसलिये इन सब नियमों का रखना आवश्यक नहीं है । कर्तव्य में बाधा न पड़े, फिर जितनी ईर्या-समिति का पालन किया जाय उतना ही अच्छा है, परन्तु इसे मूल गुण में शामिल नहीं कर सकते।
दुसरी भाषा-समिति है। इसमें भाषा के दोष दूर करके स्व-पर-हितकारी वचन बोलने की आवश्यकता है, निरर्थक हास्थ और बकवाद का त्याग है, परन्तु इसका सारा कार्य सत्य-व्रत से हो सकता है, इसलिये इसको अलग गिनाने की आवश्यकता नहीं है। हाँ, निरर्थक हास्य वगैरह का निषेध इसमें आता है; परन्तु