________________
१८६]
(जैनधर्म-मीमांसा हाँ, साधु परिग्रह-त्यागी होने से आरम्भी-हिंसा आदि के अवसर उसे कम प्राप्त होंगे, तथा उसके परिणामों की निर्मलता भी श्रावक की अपेक्षा अधिक होगी; बस अहिंसा, सत्य और अचार्य की दृष्टि से साधु श्रावक में इतना ही भेद होगा।
साधु और श्रावक का भेद मुख्यतः परिग्रह की दृष्टि से है । अपरिग्रह के प्रकरण में अपरिग्रह की छः श्रेणियाँ बतलाई गई हैं। उनमें से प्रारम्भ की तीन श्रेणियाँ साधु के लिये हैं और बाकी श्रावक के लिये।
अपरिग्रह के इस भेद का प्रभाव ब्रह्मचर्य पर भी पड़ता है। साधारणतः साधु को भी सिर्फ संकल्पा-मैथुन का ही त्यागी होना चाहिये । परन्तु किसी भी प्रकार के मैथुन से सन्तान होने की सम्भावना है और जहां सन्तान पैदा हुई कि उसके लिये अपरिग्रह की प्रारम्भिक तीन श्रेणियों में रहना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है, इसलिये यह उचित है कि वह ब्रह्मचारी रहे । अगर स्त्री-पुरुष दोनों जीवित हैं। और दोनें! ही साधु-संस्था के आश्रय में जीवन व्यतीत करना चाई और उनकी उमर वानप्रस्थ बनने के योग्य न हो तो यह ज़रूरी है कि वे दोनों सम्मातिपूर्वक कृत्रिम उपाय से सन्तान निरोध करें और यथाशक्ति अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य का पालन करें । अपरिग्रही बनने के लिये सन्तानोत्पत्ति का रोकना आवश्यक है । हाँ, अगर कोई ऐसा साम्यवादी समाज हो, जहाँ सन्तान भी समाज की संपत्ति होती हो तथा समाज को सन्तान की अत्यधिक आवश्यकता हो तो इस नियम में