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[ जैन-धर्म-मीमांसा
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निर्लिप्त होकर कार्य करना चाहिए और मोह तो सम्बन्धियों का भी न होना चाहिए । सम्यग्दर्शन के प्रकरण में इस विषय पर बहुत विवेचन किया गया है । कषाय वासना रहित होकर जीवन के सभी काम किये जा सकते हैं । जैन तीर्थङ्कर या केवली क्षण भर के लिए भी कषाय वासना नहीं रखते; परन्तु धर्म प्रचार आदि का काम दिन रात करते रहते हैं । वासना-रहित होने से मनुष्य कुछ मी काम न कर सकेगा, वह व्यवहार-शून्य हो जायगा अथवा इन कामों से वासना आ जायगी - आदि शंकाएँ ठीक नहीं ।
इस अध्याय के प्रारम्भ में चरित्र की जो परिभाषा बतलाई गई है, उसी को कसौटी बनाकर पूर्णता अपूर्णता का विचार करना चाहिये । सुख के सच्चे प्रयत्न में जो बाधाएँ हैं उनको जितना हटाया जायगा चारित्र उतना ही उन्नत कइलायगा | ऊपर जो वासना का विवेचन किया गया है, वह भी सुव में बाधक हैं; इसलिये उसे जितना हटाया जायगा चरित्र उतना ही उन्नत
कहलायगा |
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इससे इतना तो मालूम होता है कि चारित्र की एक अखंड धारा है । उसमें कोई ऐसी सीमा नहीं है जो स्वभावतः चारित्र के विभाग करती हो । एक वर्ष से अधिक वासना रहने पर चारित्र का नाश मानना भी आपेक्षिक है; क्योंकि तेरह महांने तक वासना रखने वाले और दो वर्ष तक वासना रखने वाले में भी तरतमता है। दो वर्ष तक कषाय- वासना रखने वाले की अपेक्षा तेरह महीने तक कषाय वासना रखने वाला चारित्रवान है । एक वर्ष और एक समय अधिक एक वर्ष में जितना अन्तर है उतना
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