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पूर्ण और अपूर्ण चरित्र ]
[१७१ वर्ष (श्वेताम्बर) अथवा छ: मास ( दिगम्बर), प्रत्याख्यानावरण की वासना चार मास (श्वेताम्बर ) अथवा एक पक्ष (दिगम्बर) और संज्वलन की वासना एक पक्ष (श्वेताम्बर ) अन्तुर्मुहूर्त अड़तालीस मिनट से कम (दिगम्बर)। ___कषायों की वासना से चारित्र-अचारित्र की परीक्षा करना कुछ अधिक युक्ति-सगंत है । मुनि-सम्धा और गृहस्थ-संस्था में चरित्र को विभक्त करने की अपेक्षा इस प्रकार संस्कार काल में विभक्त करना अधिक उपयोगी है।
प्रभ-गृहस्थ-जीवन में यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने कुटुम्बियों से सदा प्रेम करें । इस दृष्टि से प्रेम की वासना जीवन-भर स्थायी कहलायी और इससे प्रत्येक गृहस्थ मिथ्या-दृष्टि कहलाया । उसके स्वरूपाचरण चरित्र भी न रहा, इसलिये अगर वासना पर चारित्र भचारित्र का विचार किया जाय तो कोई भी गृहस्थ चारित्रधारी न बन सकेगा; अथवा उसे कुटुम्बियों से प्रेम करना छोड़ना पड़ेगा।
उचर-प्रेम को वासना समझना भूल है । बासना है मोह आसकि बादि : प्रेम तो निश्छल वृत्ति है । सामाजिक सुव्यवस्था के लिये हम जिन लोगों के साथ कर्तव्य में बंधे हुए हैं, उनके साथ निश्छल व्यवहार करना, हृदय से उनकी सेवा करना प्रेम है; यह कषाय नहीं है। हम अपनी पनी से प्रेम भी कर सकते हैं, मोह भी । प्रेम बुरा नहीं है। वह तो कर्तव्य तत्पर बनाने-बाली मानसिक वृत्ति है । उसका अचारित्र से कोई सम्बन्ध नहीं है।