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पूर्ण और अपूर्ण चारित्र
[१६९ आश्रम से नहीं है । किसी भी आश्रम में मनुष्य अणुव्रती और महाव्रती हो सकता है । आवश्यकता होने पर मुनि-संस्था तोड़ी ना सकती है, परन्तु महावती नष्ट नहीं किये जा सकते। सब लोग मुनि या संन्यासी होजाय, यह बात किसी भी समाज के लिये असह्य है; क्योंकि इससे उस समाज का नाश हो जायगा परन्तु अगर सब लोग महानती होजाय तो यह मनुष्य-समाज का सुवर्ण-युग होगा। ____ अणुव्रत और महाव्रत की एक दूसरी परिभाषा भी जैनशास्त्रों में प्रचलित है । उनने रागद्वेष आदि कषायों की वासना के ऊपर अणुव्रत और महाव्रत का विभाग रकवा है । इस दृष्टि से चारित्र के चार भेद किये गये हैं:-(१) स्वरूपाचरण-चारित्र, (२) देश चारित्र, (३) सकल-चारित्र, (४) यथाख्यात-चारित्र ।
चारित्र अर्थात् कर्त्तव्य के पालन में राग और द्वेष सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। हमारे मुंह के ऊपर भले ही ये प्रकट न हों, परन्तु जब तक ये वासना के रूप में हृदय में बने रहते हैं, तब तक न तो हमें शुद्ध-ज्ञान प्राप्त होता है, न हम शुद्ध चारित्र का पालन कर सकते हैं । कौन आदमी कितना अचारित्री है-इस बात को समझने के लिये हमें यह समझना चाहिये कि उसकी कषाय-वासना कितने अधिक समय तक स्थायी है । जितनी लम्बी कषाय-वासना, उतनी ही अधिक चारित्र-शून्यता ।
इस परिभाषा के अनुसार जिस व्यक्ति में राग-द्वेष की वासना बिलकुल नहीं रहती, वह यथाख्यात-चारित्री कहा जाता है। यह