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(जैन-धर्म-मीमांसा
चारित्र की पूर्णता और अपूर्णता का जैसा विचार आजकल किया जाता है या जैनशास्रों में किया गया है, वह एकदेशी है।
आजकल गृहस्थ के व्रत को अणु-व्रत * और मुनि के व्रत को महाव्रत कहते हैं, परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से यह परिभाषा ठीक नहीं है, क्योंकि गृहस्थ और मुनि, ये तो दो संस्थाएँ हैं । कोई किसी भी संस्था में रहे, परन्तु इससे उसके व्रत अपूर्ण या पूर्ण नहीं कहे जा सकते हैं । मुनि-संस्था में रहने वाला भी महाव्रती या अवती हो सकता है और गृहस्थ-संस्था में रहने वाला भी महाव्रती और केवली हो सकता है। कू पुत्र केवलज्ञानी होने पर भी घर में रहे थे, इसके अतिरिक्त बहुत से मनुष्यों ने मुनि-संस्था में प्रविष्ट हुए बिना, मुनिवेष लिये बिना केवलज्ञान प्राप्त किया था । सम्राट भरत + इलापुत्र, आसाढ़भूति आदि इसके उदाहरण हैं । इससे यह बात स्पष्ट है कि जैन सिद्धान्त के अनुसार भी अणुव्रत और महाव्रत का सम्बन्ध गृहस्थ और सन्यास
* अणुव्रतोऽगारी । तत्त्वार्थ ७
भावेण कुम्म उत्तो अवगयतत्तो य अगहिय चरित्तो । गिहवासे वि बसंतो संपत्तो केवलं नाणं | कुम्मा० च० ७
भावेण भरह चक्की तारिससुद्धन्तमझमल्लीणो। आयंसघरनिविट्ठो गिही वि सो केवली जाओ॥१४०॥ वंसग्गिसमारूढो मुनिपवरे के वि दटु विहरते । गिहिवेस इलाइचो भावेणं केवली जाओ ॥१४॥ आसाढमुइमुणिणो भरहेसरपिक्खणं कुणंतस्स । उत्पन्न गिहिणो विहु भावणं केवलं नाणं ॥१.२॥
-कुम्मापुत्त च।