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चूर्ण और अपूर्ण चरित्र;
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अन्तर एक वर्ष के भीतर या बाहर सब कहीं पाया जा सकता है । इससे हम चारित्र की न्यूनाधिकता तो जान सकते हैं; परन्तु यह नहीं कह सकते कि अमुक समय तक की वासना મેં महाव्रत माना जाय और अमुक समय तक अणुव्रत ।
अहिंसा के प्रकरण में यह बात कही जा चुकी है कि चारित्र अचारित्र का भेद अनासक्ति आसक्ति का भेद है । उस अपेक्षा से भी हम चारित्र और अचारित्र की दिशा को ही जान सकते हैं; परन्तु अणुव्रत महाव्रत का भेद नहीं कर सकते। क्योंकि आसक्ति की कितनी मात्राको अणुक्त मानाजाय और उससे अधिक को अव्रत अथवा उससे कमको महावन - इसकी कोई सीमा नहीं बनाई जा सकती ।
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चारित्र और अचारित्र के विषय में और भी दिशा सूचन किया जा सकता है । जैसे- जो न्याय के आगे सिर झुकादे वह चारित्रवान् है | चारित्रहीन मनुष्य न्याय अन्यायी पर्वाह नहीं करता । वह पशुबल से डरता है, न्याय बलसे नहीं । अगर अंकुश छूट जाय तो वह अन्याय पर उतारू हो जायगा ।
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चारित्र और अचारित्रकी यह कसैटी भी बहुत सुन्दर है, परन्तु देश चारित्र और सकल चारित्रकी सीमा बनाना इसमें भी बहुत मुश्किल है। क्योंकि छोटेसे छोटे न्याय के आगे पूर्ण रूपसे सिर झुका देने वाला सफल चारित्र है और बड़े से बड़े न्याय के आगे ज़रा भी न झुकाने वाला चारित्र हीन है । इसके बीच में ऐसी सीमा बाँधना अशक्य है, जिसे देश चारित्र कह सकें ।