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अपरिग्रह
[१५७ अवश्य रखना चाहिये कि यह संग्रह दूसरों के अधिकारों में बाधा म डाले । उदाहरणार्थ दुर्भिक्ष आदि के समय कोई वर्षों का भोजन सामग्री का संग्रह कर ले-तो यह परिग्रह ही है । सगज के पास कौनसी चीज़ कितनी है और उसमें मेरा क्या हिस्सा है, इसके अनुसार संग्रह किया जा सकता है, उसमें काल की मर्यादा नहीं बाँधी जा सकती, अथवा देशकाल के अनुसार अस्थायी मर्यादा बाँधी जा सकती है।
शंका-जैनियों का एक सम्प्रदाय तो यह कहता है कि अपने स्थान पर भी भिक्षा न लाना चाहिये और दूसरा यह कहता है कि दूसरे दिन के लिये न रखना चाहिये; परन्तु आप काल की मर्यादा भी नहीं बाँधते, यह क्या बात है !
समाधान-जैनियों के दोनों सम्प्रदायों में जो मुनियों के नियम हैं, वे एक मुनि-संस्था के नियम हैं । जुदी जुदी संस्थाओं के नियम नुदे जुदे होते हैं और वे देशकाल के अनुसार बदलते रहते हैं। मुनि-संस्था रखना चाहिये कि नहीं ! और रखना चाहिये तो उसके नियम कैसे हो ! पुराने नियम कितना परिवर्तन माँगते हैं ! आदि बातों पर तो आगे विचार किया जायगा । यहाँ तो अपरिग्रहबत का विचार किया जाता है । मुनि-संस्था में तो उन नियमों की भी आवश्यकता हो सकती है, जो अपरिग्रह-वत में शामिल नहीं किये जा सकते किन्तु एक वर्ग से उसका पालन कराने लिये समयानुसार बनाये गये हैं। संस्था बात जुदी है और संयम जुदी । संयम तो संस्था के बाहर रहकर गृहस्थ वेष में भी पालन किया