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[जैनधर्म मीमांसा जा सकता है और मुनि-संस्था में भी किसी संयम को शिथिल बनाया जा सकता है । यहाँ तो संयम का विचार किया गया है। - २-जीवन-निर्वाह के लिये अन्नादि जिन साधनों की अनिवार्य आवश्यकता है उसको प्राप्त करने के लिये जो न्यायोचित साधन हों, उनका संग्रह भी परिग्रह-पाप नहीं है । उदाहरणार्थ, खेती करने के लिये जिन आजारों की आवश्यकता है-उनका रखना परिग्रह नहीं है।
शंका-इसे आप अल्प परिग्रह कह सकते हैं परन्तु बिलकुल परिग्रह ही न माने यह कैसे हो सकता है ? ऐसा मानने से तो एक मुनि भी खेती करने लगेगा ! तब गृहस्थ और मुनि में अन्तर क्या रह जायगा !
समाधान- गृहि-संस्था और मुनि-संस्था का भेद अगर नष्ट भी हो जाय तो भी गृहस्थ और मुनि का भेद रहनेवाला है । जिस के कार्य विश्वप्रेम को लक्ष्य में रखकर होने हैं वह मुनि है, और जिसके कार्य पापित स्वार्थ को लक्ष्य में लेकर होते हैं वह श्रावक है । जिस जमाने में कृषि आदि कार्य करनेवालों की कमी नहीं होती और निःस्वार्थ सेवकों की आजीविका आदि का प्रबन्ध करने के लिये समाज विनयपूर्वक तैयारी बताती है, उस समय साधुओं को निराकुलता के साथ समाजसेवा का मौका देने के लिये कृषि आदि की मनाही कर दी जाती है । परन्तु अगर परिस्थिति बदल जाय, साधु-संस्था समाज के लिये गेझ हो जाय अथवा समाज साधुओं को कुपथ में खींचना चाहे, रूदियों और परम्परागत