________________
१६४ ]
[जैन-धर्म-मीमांसा
है । साधारणत: समाज से धन जिस लिये मांगा गया है उसी काम में लगाना चाहिये, विशेष अवस्था में अन्य किसी समाजोपयोगी कार्य में लगाया जा सकता है; परन्तु एक क्षण भर के लिये भी उस पर अपना स्वत्व स्थापित नहीं करना चाहिये | ऊपर जो अपवाद बतलाया है वह तो सिर्फ उस संचय के लिये है जो अपने परिश्रम आदि के बदले में वैध उपायों से प्राप्त किया गया है ।
सब अपवाद गिनाये नहीं जा सकते और न सब अपवादों के दुरुपयोगों से बचाने के लिये उपाय गिनाये जा सकते हैं। हां, उसकी कुंजी बतलाई जा सकती है, या कसौटी दी जा सकती है। परिग्रह क्यों दुःखप्रद है, इसका वर्णन पहिले किया गया है। उस को समझ लेने से अपरिग्रह के अपवाद समझे जा सकते हैं, और अगर कोई उसका दुरुपयोग करे तो उसकी दुरुपयोगता भी ध्यान में आ सकती है ।
प्रश्न -- अभी तक जो आपने अपरिग्रह का वर्णन लिखा लिखा है वह सिर्फ पुरुष समाज के विषय में ही मालूम होता है परन्तु स्त्रियों के हाथ में तो साम्पत्तिक अधिकार ही नहीं है । वे न तो परिग्रह का पाप ही कर सकती हैं, न अपरिग्रह व्रत ही रख सकती हैं । उनके लिये इस व्रत का क्या रूप है ?
उतर - - अभी तक अपरिग्रह के विषय में जो कुछ कहा गया है वह जैसा पुरुषों लिये लागू है वैसा स्त्रियों के लिये भी । यह दूसरी बात है कि किसी स्त्री के हाथ में सम्पत्ति न हो, परन्तु अभी बहुत-सी स्त्रियों के हाथ में सम्पत्ति होती है । जियाँ व्यापार भी करती हैं, नौकरी भी करती हैं। कुटुम्ब में दूसरा न होने से
1