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[जैनधर्म मीमांसा
उत्तर- जैनशास्त्र साम्यवाद के विरोधी नहीं, किन्तु उसके पूर्ण पोषक हैं । जैनशास्त्रों में जो पहिले, दूसरे, तीसरे (आरा) काल की कल्पना की गई है और जो सबसे अच्छा युग बतलाया गया है, वह पूर्ण साम्यवादी है । इसी प्रकार स्वर्ग लोक के भी दो भेद हैं--एक तो साम्राज्यवादी, दूसरे पूर्ण साम्यवादी । साम्राज्यवादी सौधर्म आदि स्वर्गों के देवों की अपेक्षा पूर्ण साम्यवादी गैवेयक आदि के देवों का स्थान बहुत उच्च है । वे सभ्यता, शिक्षा, शान्ति, शक्ति, सुख आदि में माम्राज्यवादी देवों से बहुत बढे चढ़े हैं । साम्राज्यवादी देवों का सम्राट इन्द्र भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता । इससे इतना तो मालूम होता है कि सुखमय-समाज का पूर्ण आदर्श साम्यवाद है । परन्तु यह साम्यवाद समाज के व्यक्तियों की योग्यता और निस्वार्थता पर निर्भर है । समाज अगर मूढ़ और स्वार्थी हो तो साम्यवाद महामकर हो जाता है । वह या तो समाज को नरक बना देता है या साम्राज्यवाद या राज्यवाद में परिणत कर देता है । परन्तु इस प्रकार का दुरुपयोग तो प्रत्येक गुण का होता है या हो सकता है, इसीलिये वह गुण हेय नहीं हो जाता । सिर्फ योग्यता का विचार करना चाहिये । समाज की योग्यता और निस्वार्थता का विचार करके मात्रा से अधिक नहीं, फिर भी अधिक से अधिक साम्यवाद का प्रचार करना चाहिये । साम्यवाद और अपरिग्रह-व्रत का यह उद्देश्य नहीं है कि मनुष्य पशु की तरह हो जाय किन्तु यह उद्देश्य है कि दूसरे लोग अपनी न्यायोचित सुविधाओं से वंचित रहकर भूखों न मरें। समाज के पास जितनी सम्पत्ति है उसे देखते हुए जितना माग हमारे हिस्से