________________
अपरिग्रह ]
[ १४५
का है अथवा कर्तव्य को पूरा करने के लिये जो हमें
आवश्यक है
उसका उपभोग और संग्रह करने में कोई परिग्रही नहीं कहलाता ; किन्तु अनावश्यक तथा अपने हिस्से से बहुत अधिक संग्रह करना परिग्रह है । एक ही समान बाह्य परिग्रह रखने पर भी एक समय और एक जगह परिग्रह का पाप हो सकता है और दूसरे समय और दूसरी जगह नहीं। जब काम अधिक हो और करनेवाले कम हो तब भोगोपभोग की जितनी सामग्री किसी को परिग्रही बना सकती है उतनी बेकारी के ज़माने में नहीं बना सकती । जब काम कम और करनेवाले अधिक होते हैं और वे बेकार फिरते हैं। तब भोगोपभोग की चीजों का अधिक संग्रह किया जा सकता है । मतलब यह कि समाज की परिस्थिति के ऊपर परिग्रह और अपरिग्रह की मात्रा अवलम्बित है । ढाई हजार वर्ष पहिले मुनि जितने उपकरण रख सकता था, आज उससे कई गुणे उपकरण रखकर भी अपरिग्रही हो सकता है। हाँ, उसके ऊपर अनावश्यक स्वामित्व न होना चाहिये; इसलिये अपरिग्रह व्रत में संग्रह-मात्र का निषेध नहीं है, किन्तु उसके मात्राधिक्य का निषेध है । जगह जगह संग्रह करने की आवश्यकता तभी होती है जब एक तरफ अत्यंत कङ्गाली हो । यदि सभी को न्यायोचित साधन मिले तो किसी के पास अधिक संग्रह हो इसकी क्या आवश्यकता है ? यदि कोई सार्वजनिक बड़ा-सा कार्य करना हो तो इसके लिये सरकार के पास सार्वजनिक कोष होता है, उसका उपयोग किया जा सकता है या सब लोग मिलकर वह कार्य कर सकते हैं, और जलाशयों की उपमा यहाँ भी लागू हो सकती है । जलाशयों का होना