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सत्य ]
[८१ उल्लंघन न किया जाय, आवश्यकतामे अधिक प्रयोग न किया जाय । प्रतिक्रिया उल्टा असर-न होने लंगे, इसका भी विचार किया जाय । मतलब यह कि दूसरे को दुःवी करने का भाव जरा भी न होना चाहिये । फिरभी इसमें छट्टे नियमके उपयोगकी जरूरत है।
छल कपटमे आडीटेड़ी रचना भी अमल है। जैसे महाभारत के समय युधिष्टिर ने 'अश्वत्थामा हतः नरा वा कुंजरो वा' अर्थात अश्वन्याना मारा गया परन्तु का नहीं सकते कि वह मनुष्य था या हाया, कहकर द्राणाचार्य को धोखा दिया था । युधिष्टा ने अपने बचाव के लिय · नर वा, कुंजरो वा कह दिया था परन्तु वह जानसकर इतने धारसे कहा कि जिसमें रोणाचार्य बोख म जाँय, हुआ भी यही । परन्तु इससे युधिष्टिरका रथ जमीन पर चलने लगा जोकि चार अंगुल ऊँचा चलता था । युधिष्ठिर का रथ चार अंगुल ऊँचा चलता था, इस पर विश्वास करने का काम अगर मैले भक्तोंपर छोड़ दिया जाय तो भी इसमें संदेह नहीं कि प्रत्यवादिताने युधिष्ठिर का स्थान पृथ्वी अर्थात पृथ्वी पर रहने वाले प्राणिोरे अर्थात् साधारण समा में चार अंशुल ऊँचा था । परन्तु द्रोणाचार्य की ञ्चना करने के बाद ये पृथ्वी ९ अगाये अनि नाधारण लोगों की तरह हा गय।
यह तो हुई बोलनकी बात । ऐसी ही लिखनेकी कुटिलता हाती है । असली बातको खराब अशगमें लिख जाना, एसी जगह लिख जाना जहाँ पाठकका ध्यानही न पहुँच, अथवा आगे पीछे ऐसी बातें लिख देना जिसमे उसका ध्यान दूसरी तरफ चला जाय और मौके