________________
१२६]
[जैन धर्म-मीमांसा
से हेय है। ___हाँ, जो बाई अविवाहित रहने पर भी सिर्फ गर्भाधान के लिये क्षणिक सम्बन्ध करती है, इसको वह व्यसन नहीं बनाती, वह संकल्पी व्यभिचार के पाप में नहीं डूबती ।
असली बात तो यह है कि इस प्रश्न का सम्बन्ध ब्रह्मवर्य मीमांसा से उतना नहीं है जितना कि समाज में स्त्री-पुरुषों के अधिकार की मीमांसा से । सन्तान के निर्माण में जब अत्यधिक भाग माना का है, तब उसपर माता का ही अधिक अधिकार क्यों न रहे ? सन्तान के नाम के साथ पिता का नाम क्यों रहे, माता का क्यों न रहे ! पिता का निर्णय करना तो अशक्यप्राय है तथा वेश्याओं की और विधवाओं की सन्तान के नाम के साथ उस के पिता का नाम लगाना नहीं बन सकता, इसलिये व्यापकता की दृष्टि से माता का ही नाम क्यों ने लगाया जाय ! अगर दायभाग के निर्णय के लिये पिता का नाम लगाया जाता है तो दायभाग के नियम इस प्रकार पक्षपातपूर्ण क्यों हैं ! उन्हें बदलना क्यन चाहिये ! इत्यादि अनेक समस्याएं हैं जिनके साथ उपर्युक्त समस्या का सम्बन्ध है । व्यभिचार का अर्थ सामाजिक वातावरण के अनुकूल. ही लगाया जा सकता है। मैथुन के जिस सम्बन्ध को समाज स्वीकार कर लेती है का व्यभिचार नहीं कहा जा सकता । इतना ही नहीं किन्तु सामाजिक विधि में कोई अन्याय मालूम होता हो तो उसको सुधारने के लिये नैतिक बल से किसी दूसरी विधि का अवलम्बन लेना भी व्यभिचार नहीं है।