________________
'अचौर्य ।
[८७ लगा । एक तरहसे वह वरकी योग्यताका विचार न करके कन्याको नीलाम पर रख देगा। जो मबस अधिक धन दे. वही कन्याको प्राप्त करे । इसपर इसमें कन्याका अधिकार हड़प लिया जाता है। कन्याशुल्कके रिवाजमें यद्यपि इतनी बुगई नहीं है, फिरभी बुई है, क्योंकि इससे चुनाव में बाधा पड़सकती है । किसांके पास धन न हो और कन्या उसे पसन्द करे तो उसकी यह पसन्दगी कन्याशुल्क न चुका सकने के कारण व्यर्थ जायगी । हा. कन्या शुल्कके रिवाज में शुल्क चुकाने का एक तरीका और था कि जो शुल्क न चुकासके वह अमुक समय तक श्वसुर घरमें रहकर काम करे, इस प्रकार उसका ऋण चुक जायगा । इस तरह इस प्रथा का बहुत कुछ विषापहरण होगया था, फिरभी व्यवहारमें यह बहुत कठिन होनेसे इससे हानि ही थी, इससे उठगया।
इसके अतिरिक्त इन दोनों-कन्या विक्रय और कन्याशुल्कके विषयमें एक विचारणीय बात और है । मातापिता का यह सममना कि हमने पुत्रीका पालन किया है इसलिये उसके बदलेमें कुछ लेनेका हमें अधिकार है, अनुचित है । पहले कहा जाचुका है कि सन्तानका पालन समाजका ऋण चुकाना है ( पुत्रको तो इसलिये पिताकी सेवा करना चाहिये कि वह सम्पत्तिका उत्तराधिकारी है। कन्या पिताके इस उत्तराधिकारसे मुक्त है इसलिये सेवासे मुक्त है। हाँ, दूसरे घरमें रहते हुएभी जितनी सेवा की जासकती हो, उतनी करना चाहिये । परन्तु पिता इसके लिये नैतिक दबाव नहीं डाल सकता) इसलिये उसे कन्याशुल्क लेनेका क्या हक है ! ऋण चुकाना कुछ साहुकारी नहीं है कि वह वापिस मांगी जाय ।