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ब्रह्मचर्य]
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उसमें मर्यादा न रक्खी जाय, उससे दो में से किसी एक की भी शक्तिका हास होने लंग तो उसे एक प्रकार का व्यभिचार ही कहेंगे। नियम के शब्दों की दृष्टि से वह व्यभिचारी मल ही न कहा जाय, परन्तु नियम के लक्ष्य की दृष्टि से वह व्यभिचारी है ।
भोजनादि की सात्विकता भी ब्रह्मचर्य का अंग है । जिस भोजन को हम पचा नहीं सकते अर्थात् जिसकी उभाटकता को हम सहन नहीं कर सकते, मनोवृत्तियों जिससे विकृत होती हों उससे बचना चाहिये । इसी प्रकार श्रृंगार तथा अन्य इन्द्रियोंकी लोलुपता भी ब्रह्मचर्य में बाधक है।
शंका --धर्मका लक्ष्य अगर सुख है तो वह सौन्दर्य आदि सुखसाधनों का विरोध क्यों करता है ? सौन्दर्योपासना में आखिर पाए क्या है ? क्योंकि इससे न तो किसी को कष्ट पहुँचता है. न किसी की कोई सामग्री छीनी जाती है । यह तो एक ऐसा आनन्द है जिसके लिये हमें किसी की गुलामी नहीं करना पड़ती । प्रकृति के भण्डार में जो अनंत सौन्दर्य भरा हुआ है उसको विना नष्ट किय अगर हम उसका उपभोग कर सकते हैं तो इसमें क्या हानि है ! क्या आप यह चाहते हैं कि मनुष्य गंदा रहे ? इस गंदगी और नारसता के कष्ट सहन करने से क्या आत्मोन्नति हो जायगी ?
समाधान-कष्ट सहन से आत्मोन्नति नह होती; न धर्मके नामपर गंदगी फैलाने की ज़रूरत है । गंदगी तो पाप है और स्वच्छता धर्म है । परन्तु सौन्दर्य या श्रृंगार को स्वच्छता समझना भूल है । सुंदर से सुंदर वस्त्राभूषण स्वच्छ नहीं होते और स्वच्छ