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[जैन-धर्म-मीमांसा समाधान- मैथुन की वासना का रूपान्तर मैथुन नहीं है । यो तो अच्छी से अच्छी मनोवृत्ति भी बुरी से बुरी मनोवृत्ति का रूपान्तर कही जासकती है, परन्तु इसीलिये वह बुरी नहीं होती । स्वादिष्ट और सुगंधित फलफूल आदि भी उस खादके रूपान्तर होते हैं जो दुर्गध आदि का समूह है । जैनशास्त्र के अनुसार कषाय और संयम एक ही गुण के रूपान्तर हैं, इसलिये कोई किसी का रूपान्तर होजगने से ही अच्छा या बुरा नहीं होजाता । इसका निर्णय करने के लिये हमें उसकी स्वतंत्र परीक्षा करना चाहिये । ब्रह्मचर्य के जो तीन उद्देश्य ऊपर बतलाये हैं उन में आर बाधा न आवे तो मैथुन की वासना का रूपान्तर होकर के भी सौन्दर्योपासना मैथुन में शामिल नहीं की जा सकती, न पाप मानी जा सकती है ।
इसके साथ एक बात और ध्यान में रखने की है कि ब्रह्मचारी को लोलुप न होना चाहिये । किसी सुन्दरी का दिखजाना एक बात है और उसके लिये लोलुप मनोवृत्ति का होना दुमरी बात । अमर यह लोलुपता रहेगी तो बहुत ही शंघ्र मन विकृत और अशान्त हा जायगा जिसका अनिवार्य फल मानसिक और शारीरिक मैथुन होगा इसलिये लोलुपतारहित समभावपूर्वक सौन्दर्यकी उपासना करना चाहिये । अगर इसमे मैथुन की वासना को उत्तेजना मिलती हो तो इसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है । अगर इससे वह वासना परिवर्तित हो जाती हो तो यह उचित है।
यद्यपि हरएक पुण्य-पाप का विश्लेषण मनोवृत्ति पर ही निर्भर है परन्तु ब्रह्मचर्य तो मनोवृत्ति से और भी अधिक घनिष्ट