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ब्रह्मचर्य ]
[११७ होता है कि यदि सौन्दर्योपासना में मैथुन की गसना न हो तो वह अधर्म नहीं है, क्योंकि इस दुवीसना के आने उपयुक्त तीनों प्रयोजन नष्ट हो जाते हैं।
शंका -मान्दर्य की उपासना में मैथुन की वासना न हो, यह असम्भव है । जगतका सारा मौन्दर्य मैथुन की वासना का रूपान्तर या सूक्ष्म रूप है। बल्कि यों कहना चाहिये कि जो हमारी इस वासना की पूर्ति करता है, उसीका नाम सौन्दय है । स्त्री और पुस्तम जो लैङ्गिक आकर्षण है उसको या उसके साधनों की जहाँ समानता दिखाई देती है उसी का नाम सौन्दर्य है। चन्द्रमा इसीलिये सुन्दर है कि वह प्रेयसी के मुख का स्मरण कराता है। हंस इसीलिये प्यारा कि वह स्त्री की गति । अनुकरण करके हमें उसका प्रत्यभिज्ञान कराता है । आँखों की समानता कमला की शोभा है । इतना ही नहीं किन्तु मैथुनके लिये जो समय या जो वातावरण अनुकूल होता है उससे विशेष सम्बन्ध रखनेवाली बस्तु भी सुन्दर मालूम होती है । वसन्त का समय अगर अनुकूल है तो वसन्त में होनेवाली प्रत्येक वस्तु हमारे लिये सुन्दर हो जाती है । बालक
आदि में जबतक यह वासना पैदा नहीं होती तबतक उसका पूर्वरूप रहता है । लैङ्गिक विज्ञानके अनुसार तो माता का पुत्र से स्नेह भी इसी वासना का रूपान्तर है । इसलिये सौन्दर्योपासना को मैथुन की वासना से अलग करना असंभव है । इसलिये अब या तो सौन्दर्योपासना को पार कहना चाहिये या मैथुन को धर्म कहना चाहिये।