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[जैन-धर्म-मीमांसा
वखादि भी सुन्दर नहीं होते । यह सम्भव है कि कहीं स्वच्छता और सुंदरता का मेल होजाय परन्तु इनके मेल का नियम नहीं है । धर्म, विशुद्ध सोन्दर्य की उपासना का विरोध नहीं करता । मन्दाकिनी की निरवच्छिन्न धारा, समुद्रको असंख्य कल्लोले या उसकी अनंत नीरवता, गिरिराज की हिमाच्छन्न चोटियाँ और बसन्त में प्रकृतिका अनन्त शृंगार जो अनन्द प्रदान करता है, धर्म उसका विरोध नहीं करता क्योंकि इससे ब्रह्मचर्य के उपरिलिखित तीन प्रयोजनों में से किसी की भी हानि नहीं है । इस सौन्दर्योपासना में व्यक्त या अव्यक्त रूपमें विश्व में तल्लीन होजाने की भावना है, संकुचितता या याग है । इतना ही नहीं किन्तु इस आशय से हम प्राणियोंके और मनुष्यों के भी सौन्दर्यकी उपासना कर सकत जैसे वनस्पति आदि प्राणियों में प्रकृतिका सौन्दर्य दिखलाई देता है उसी प्रकार मयूर की शिखा और कोकिल की कुहुकुहू भी प्रकृति का सौन्दर्य हैं । स्वयं मनुष्य भी प्रकृतिका एक अंग है। जिस निर्दोष बुद्धि से हम वसन्त आदि की शोभा निरखत है या जिस निर्दोष बुद्धि से हम बालक या बालिकाको या अपनी बहन और नाताको देखते हैं, उसी निर्दोष बुद्धिसे हम किसी भी स्त्री या पुरुष के सौन्दर्य को देखें तो यह ब्रह्मचर्य का दोष नहीं है ! परन्तु यह याद रखना चाहिये कि इस निर्दोष बुद्धिका सुरक्षित रखना कठिन है । यह पहुँचे हुए महात्माओं का कार्य है । "जैनशास्त्रों के अनुसार जैनसाधु बियों के साथ विहार नहीं कर सकता परन्तु महात्मा महावीर के साथ सैकड़ों स्त्रियाँ (आर्या और श्राविकाएँ ) विहार करती थीं। इससे मालूम
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