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ब्रह्मचर्य]
कि यह मुख किस दृष्टि से अधिक है ! निरक्षिण करनेसे इस सुख का कारण स्थायिता ही मालूम होता है । मनुष्यों के समान मैथुन बहुत थोड़े समय तक किया जा सकता है और पीछे से इसमें ग्लानि अधिक है। इसकी अपेक्षा आलिङ्गन आदि अधिक समय तक हो सकता है और इसमें ग्लानि कम है । रूपदर्शन इससे भी अधिक समय तक हो सकता है और स्पर्श न होने से इसमें ग्लानि और भी कम है तथा संगीत तो और भी अधिक आकर्षक तथा स्थायी है और शरीर के अवयों का प्रत्यभिज्ञान भी इससे कम होता है इससे ग्लानि तो बिलकुल कम है | मानसिक विचार तो इन सबसे अधिक समय तक स्थायी रह सकता है, इसमें पराधीनता भी नहीं हैं और ग्लानिके कारणों का किमी भी इन्द्रियमे प्रत्यक्ष नहीं होता इस लये य: और भी अधिक मुग्वमय है और ब्रह्मचारी के समान रहनवाला तो मानसिक टिम भी बिलकुल स्वतंत्र आर निराकुल रहता है इसलिये उनका मुख सबसे अधिक है।
उपर्युक क्रम विकासवादी दृष्टि से भी उचित मालूम होता है। पशु भों में स्त्री-पुरुष का मुग्व प्रायः मागरण मैथुनकी क्रिणमें समाप्त हो जाता है, जबकि मनुष्यों में इसमें आगे की चार श्रेणियाँ (स्पर्श रूप शब्द, मन ) भी पाई जाती है । ज्या ज्यो सभ्यता का विकास होता है त्यों त्यों कलाओं का भी विकास होता है, और पाशविक लिप्सा कलाप्रेममें परिणत होती जाती है । इससे इतना अवश्य मालूम होता है कि सुख की वृद्धि ब्रह्मचर्य की दिशा में ही है ।
इस प्रकार ब्रह्मचर्य सुखबर्द्धक सिद्ध हो जाने पर भी हिंसा