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ब्रह्मचर्य
[१११ उत्तर-यद्यपि दोषों का यह परिहार बिलकुल निर्बल नहीं है, फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जिनसे यह बात मानना पड़ती है कि मैथुन पूर्णसुख में बाधक है । पहिला परिहार यद्यपि सम्भव है फिर भी इतना दुर्लभ है कि अपवाद के नाम पर उसका उल्लेख ही किया जा सकता है, नियमरूपी राजमार्ग में उसको जगह नहीं दी जा सकती । दूसरा परिहार ठक कहा जा सकता है और तीसरा भी किसी तरह ठीक है, परन्तु चौथा कुछ विचारणीय है; क्योंकि संगीत आदि के श्रवण करने से जो तृप्ति होती है उसका फल ऐसी ग्लानि नहीं है जैसी कि यहाँ होती है । इसलिये अन्य विषयों की तृप्तेि की अपेक्षा इसकी तृप्ति कुछ विचित्र है । पाँचवाँ परिहार इससे भी अधिक विचारणीय है क्योंकि क्षणिक सुख का परिणाम दुःख है । जिसका संयोग सुखरूप है उसका वियोग दुःख रूप होता है।
अगर संयोग का समय अल्प और वियोगका समय अधिक है, तो यह मानना चाहिये कि सुख की अपेक्षा दुःख अधिक है । इसलिये अगर संयोगज सुबका भोग ही करना हो तो यथाशक्ति ऐसा भोग करना चाहिये जिसमें संयोग अधिक और वियोग का हो। इस दिशा में भैयूनका प्रचलित रूप बहुत निन्न श्रेणीका ठहरता है इसलिये जैनशास्त्रों में मैथुन के विविध रूपों का वर्णन है इस वर्णनसे यह बात माइम होती है कि क्यों ज्यों सभ्यता का विकास और सुखकी वृद्धि होती है त्यो त्यों मैथुन का प्रचलित रूप विकसित होता जाता है और अन्त में ब्रह्मचर्यमें परिवर्तित हो जाता है।
जैनशाखों में देवगति का जो वर्णन मिलता है उसमें इस