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[जैन-धर्म-मीमांसा
सिद्धान्तका सुन्दर चित्रण है । देवगतिके इस बर्णनपर अगर विश्वास न भी किया जाय तो भी इस सिद्धान्त की सत्यता को धक्का नहीं लगता, क्योंकि वर्तमान में अपने अनुभव से भी इस चित्रण की सत्यता को समझ सकते हैं ।
पहिले और दूसरे स्वर्ग के
के
देव मनुष्यों के समान ही मैथुन करते हैं, तीसरे और चौथे स्वर्ग देव आलिङ्गनादि से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । इससे आगे के देव सौन्दर्य के अवलोकन से सन्तुष्ट हो जाते हैं । इससे आगे सहबार स्वर्ग तक के देव संगीत सुनने से ही संतुष्ट हो जाते हैं और इससे आगे के देव मानसिक सङ्कल्प से ही संतुष्ट हो जाते हैं । और इससे आगे के देवों के मैथुनकी वासना ही नहीं होती- वे ब्रह्मचारी की तरह होते हैं । ये देव सबसे अधिक सुखी माने जाते हैं। इससे कम सुखी मानसिक सङ्कल्प वाले, उनसे भी कम सुखी संगीत से सन्तुष्ट होनेवाले, उनसे भी कम सौन्दर्य से सन्तुष्ट होनेवाले और उससे भी कम आलिंगन से सन्तुष्ट होनेवाले भार उससे भी कम सुखी साधारण मैथुन करनेवाले हैं । जैनधर्म में देवगति में संयम नहीं माना जाता, इसलिये सुख की यह अधिकता संयम की दृष्टि से तो है नहीं, इसलिये यह एक विचारणीय बात है।
दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव और कापिष्ट स्वर्ग के देव | श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कम और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग एक ही नाम से पुकारा जाता है इसी प्रकार लावन्तका पिष्ट, लान्तव नामने आगंके शुक महानुक, महाशुक्र के नामसे और सतार सहस्रार, सहस्रार के नामसे । इसप्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय में स्वर्गो की संख्या १६ और देताम्बर में १२ हैं । वस्तुस्थिति में कुछ मंद नहीं है । फिर भी १२ की मान्यता प्राचनि और दोनों समदाय में प्रचलित है ।