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जैन-धर्म-मीमांसा ही चोरी है । कन्याको अधिकार है कि वह अपनी इच्छा के अनुसार योग्य वर से शादी करे और वर को अधिकार है कि वह अपनी इच्छाके अनुसार योग्य कन्याके साथ शादी करे । कन्याविक्रय और वरविक्रयमें दोनों का यह जन्मसिद्ध अधिकार छीन लिया जाता है ।
शंका-कन्याशुल्क लेनका रिवाज़ तो बहुत पुराना है। और यह उचित भी मालूम होता है; क्योंकि जब माता पिताने कन्याका पालन किया है तब उसका मिहनताना उन्हें मिलना ही चाहिये।
समाधान - कन्याशुल्कका विज समाजकी अविकसित अवस्थामें था किन्तु वह बुरा था । ज्या ज्यों विकास होता गया त्यों यो उस कुरीतिका त्याग भी होता गया । पुराना होनेमें कोई पाप पुण्य नहीं बन जाता। इसके अतिरिक्त वरविक्रयका रिवाज तो पुराना भी नहीं है और न कन्याशुल्कके समान थोडासा भी नैतिक सहारा रखता है । वरपक्षको किस हैसियतसे कन्यापक्षसे कुछ लेनेका अधिकार मिलसकता है ! कन्या के मातापिताने कन्याका पालन कर दिया, इतना ही काफी है। अब यह कन्याको सम्पत्ति क्यों दे ! कन्याविक्रयके रिवाज़से कन्याशुल्कका रिवाज कम खराब है । क्योंकि कन्याशुल्व के रिवाज़ में तो वर कन्याको पारस्परिक चुनाव करनेका पूर्ण अधिकार होता था। दोनोंका सम्बन्ध जब तय हो जाता था तब वर, कन्या के पितासे शुल्कका परिमाण पूछता था । वह शुल्क कन्याके पालनपोषणके खर्च के अनुसार नियत रहता था, न कि वरके अनुसार घटता बढ़ता था। कन्याविक्रयमें तो जितना ही अधिक बढ़ा और अयोभ्य वर होगा, कन्याका पिता उतना ही अधिक धन