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ब्रह्मचर्य ] जब समझौता होगया और दोनोंकी एकही परम्परा मानली गई तव यह बहुत मम्भव है कि एक परम्परा मिद्ध करने के लिये ऐतिहासिकता को किनारे रखकर संगतताकी दृष्टिमे समन्वय किया गया हो। जैनशास्त्रों के देखनेसे यह बात माफ मालूम होती है कि पार्श्वतीयमें शिथिलाचार बहुत आगया था, उस समयके मुनि ऐय्याश और कष्टोंको न महनेवाले होगये थे।
खैर, माना कि मैथुनीवाति अपरिग्रहवतमें शामिल थी परन्तु इससे भी इतना तो मान होता है कि उस समय स्त्रीसेवनका पाप इतना ही बड़ा या जितना स्वादिष्ठ भोजन या अन्य किमी इन्द्रिय विषयके सेवनका पाप हो सकता है । महात्मा महावीर के बाद • ब्रह्मचयको जो महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ, वह उमे पहिले प्राप्त नहीं था।
जैनशास्त्रोंमें ही क्या, दुनियाँके सभी इतिहामों में इस विषयके पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं कि पहिले मैथुनको लोग कोई पप नहीं समझते थे, यद्यपि चे अहिंसा, सत्य, अयि और त्यागः । उच्चस्वर में गाने लगेथे ।
ज सिप्पेगे पंपात सिमिर माए पचायने । नासपो अणग हिमवाए निवायसन्ति । टीका-पार्श्वनाथ तीर्थप्रबजिता गच्छवासिनः एव शीतादिता निवातपात घंघ शालादिका वसती र्वाता नादरहिताः प्रार्थयात । किन इह मंघाटीशब्दन शीतापनादक्षयं कल्चर यं वा गृह्यते , नाः सघारी: शीतादिता व प्रवेश्यामः एवं गीतार्दिता अनगागः अपि विदधति-आचारात ९. -१६।