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| जन-धर्म-मीमांसा
इसलिये चोरी है, आदि । परन्तु जिस मैथुन में जबर्दस्ती नहीं है, चोरी नहीं है, उसे पाप कैसे कहा जा सकता है !
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मैथुन में रागपरिणति है, इसलिये उसे पाप कहा जाय तत्र तो भोजनादि भी पाप कहलायेगे । प्रत्येक इन्द्रियका विषय पाप कहलायेगा । यदि उन सबको पाप माना जाय तो पापको पाँचही भागों में विभक्त क्यों किया ? मैथुन के समान अन्य इन्द्रियों के विषय को भी स्वतंत्र पाप गिनना चाहिये था । अथवा ब्रह्मचर्यको भी मोगोपभोग परिणाम नामक व्रत में रखना चाहिये । इसे प्रधान पापो क्यों गिना ? इन सब समस्याओंके ऊपर विचार करने के पहिले ब्रह्मचर्य के विषय में कुछ ऐतिहासिक विवेचन कर लेन उचित है
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यह बात प्रसिद्ध है कि महात्मा पार्श्वनाथ के समय में चार ही व्रत थे, ब्रह्मचर्यव्रत नहीं था | ब्रह्मचर्यको नया व्रत बनाय महात्ला महावरिने ! अब प्रश्न यह है कि यदि उस समय ब्रह्मचर्यव्रत नहीं था तो क्या उस समय के साधु सपत्नीक ? अथवा हर किसा खीसे सम्बन्ध स्थापित कर देते थे ? अथवा ब्रह्मचर्यव्रत का पालन तो करते थे किन्तु उसे अपरिग्रहव्रतमें शामिल करते थे । जैनश, स्त्रों के अनुसार पार्श्वतीर्थ के साधुमी ब्रह्मचर्य रखते थे, किन्तु उस वे अपरिग्रह शामिल करते थे । परन्तु इस मत यह सन्देह तो रह ही जाता है कि जैनशास्त्रों का यह समन्वय ऐतिहासिक दृष्टिमे (Historioal Method) किया गया है या संगतता की दृष्टिसे (Logical Method) । पार्श्वतीर्थ के श्रमण का और महात्मा महावीरका
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