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ब्रह्मचर्य]
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सरपट दौड़ा कि उसे मर्यादा का भी खयाल न रहा । ब्रह्मचर्यके नाम पर स्त्रियों को जीते जलानेका, उन्हें बलाद्वैधव्य देने का भी रिवाज़ पड़गया ।
मैं पहिले कह चुका है कि धर्म मुख के लिये है । इसलिये जो सुखका कारण है वह धर्म है; जो दुःख का कारण है वह अधर्म है । इस कसौटी पर कसकर यहाँ विचार करना चाहिये कि भैथुन कितने दुःख का कारण है !
१-पराधीनता दु.ख का कारण है । अन्य इन्द्रियों के विषयोंमें जितनी पराधीनता है, उसमे कइ गुणी पराधीनता मैथुनमें है। अन्य इन्द्रियोंमें भोग या उपभोग्य सामग्री जड़ या जडतुल्य होती है इसलिये उसमें इच्छा नहीं होती, जिसका हमें ग्वयाल रखना पड़े । परन्तु मैथुनमें दूसोकी इच्छा का पूरा खयाल रखना पड़ता है। अगर खयाल न रकवा जाय तो वह हिंसा:मक और नीरस होजाता है । इसलिये वह अन्य विषयों की अपेक्षा दुःखप्रद है।
२-उपर्युक्त विषमता होनेसे उसमें पीछे का कार्यभार और बढ़ता है । जैसे गर्भाधानादि होने पर जीवन की शक्तियाँ उसके संरक्षण आदिने खर्च होने लगती है । जो विश्वको कुटुम्ब मानकर उसकी सेवा करना चाहता है उसकी शक्तियों का बहुभाग इस छ टेसे कुटुम्बकी सेवामें लग जाता है । और इसके लिय उसे थोड़ी बहुत मात्रामें परिग्रहादि अन्य पापों को भी स्वीकार करना पड़ता है
३-अन्य इन्द्रियों के विषय शारीरिक और मानसिक शक्तिका