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जिन-धर्म-मिांसा
अभी तक जो चोरियां बताई गई उनका सम्बन्ध धनसे है परन्तु धनकीही चोरी नहीं होती किन्तु धनसे भिन्न वस्तुकीभी चोरी होती है । जैसे
११-यशकी चोरी एक बड़ी भारी चोरी है। जैसे दूसरे की रचनाओंको अपना बताना चोरी है। रचनाकी मुख्य वस्तु हड़पकर उसको छुपानेके लिये कुछ दूसरा रंग चढ़ाना भी चोरी है। आवश्यक्तावश अगर हमें ऐसा करना पड़े तो कृतज्ञता प्रगट करना चाहिये।
शंका-मनुष्यके पास अपना तो कुछभी नहीं है। मनुष्य अगर पैदा होने के साथ समाजसे अलग कर दिया जाय तो वह जीवित ही न रह सकेगा। अगर वह जीवित भी रहा तो पशुसे भी बुरा होगा । वह मनुष्यके समान बोल भी न सकेगा । जय भाषा तक अपनी नहीं है तब और तो अपना क्या होमा ! इसलिये वह अपनी किसी रचनाको कमी अपना नहीं कह सकेगा। कहेण तो भाप उसे चोर कहेंगे।
समाधान-जो ज्ञानधन जनसाधारणको सम्पति रूप प्रसिद्ध हो गया है, उसे लेनेमें चोरी नहीं है, न उसके लिये कृतज्ञता प्रगट करनेकी ज़रूरत है । मिट्टी जनसाधारणको हो सकती है, परन्तु मिट्टी को लेकर जो कोई रचनाविशेष (घर आदि) बनाता है, वह उसीकी चीज़ कहलाती है । सामादि जो सम्पत्ति जनसाधारणकी चीज़ बन गई है उसके विषयमें व्यक्तिविशेषको व्यक्तिविशेषकी कृतज्ञता प्रगट करने की ज़रत नहीं है। करे तो