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८. ]
[ जैन-धर्म-मीमांसा करलेना चोरी ही है । अनुमति लेने का समय न हो तो पीछेसे सूचना देना चाहिये, अथवा उसके छुपाने का भाव तो कदापि न होना चाहिये । कल्पना करो हम बाजारसे दस आम लाये । घरमें पाँच आदमी हैं परन्तु दुमरोंने यह सोच कर कि इनका परिश्रम उच्च श्रेणीका है इसलिये मुझे दो के बदले चार आम दिये और मैं खागया । यद्यपि यहाँ कुछ कहने सुनने की आवश्यकता नहीं हुई फिर भी सबने मौनभाषामें यह कह दिया कि इमने तुम्हारा हिस्सा तुम्हारी ये ग्यता और परिश्रमो अनुसार चुका दिया है, अब हमारे ऊपर ऋण न रहा आदि, परन्तु यदि दो आम चारीसे खाता हूँ
और प्रकट रूपमें उतना ही हिस्सा खाता हूँ जितना दूसरोंको मिला है तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं मौनभाषा में कह रहा हूँ कि मैंने अपनी योग्यताका अधिक भाग नहीं लिया इसलिये वह ऋण तुम लोगों पर चढ़ा हुआ है । आसमीमे रुपये लेकर भी यह कहना कि मैंने नहीं लिया, कुछ न देकर के भी यह कहना कि मैंने दान दिया है, जैसे यह चोरी है, उसी प्रकार इस आमके दृष्टान्तमें भी चोरी है। इसी प्रकार बच्चों वगैरहसे छुपाकर खाना भी चोरी है, क्योंकि इस में कुछ न देकर भी दूसरोंको ऋणी बनाये रहने की दुर्वासना है।
३-में अर्थोपार्जन करता हूँ. इसलिये सम्पत्तिपर मेरा ही पूर्ण अधिकार है यह समझना भी चोरी है। समाजने सबकी सुविधाके लिये काम का बटवारा कर दिया है। कुछ काम पुरुषके हाथमें सौंपा. कुछ स्त्रीके हाथमें । वृद्धावस्थामें शरीर शिथिल होजाने पर या अपना गृहस्थोचित कर्तव्य कर जाने पर माता पिताको पेंशन दी। समाजके दो प्रतिनिधियों ( माता पिता) ने तुम्हें पाला, इसलिये