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जिन-धर्म-मीमांसा के लिये जितनी ढील दी जा सकती है उतनी सत्य के लिये नहीं। इसके अतिरिक्त आपवादिक हिंसा के प्रायश्चित्त की उपयोगिता प्रायः कुछ नहीं है जब कि अपवादिक असत्य का प्रायश्चित्त अविश्वास को दूर करके सत्य के उद्देश्य में सहायक होता है। इसलिये यहाँ पर प्रायश्चित्त का उल्लेख किया गया है ।
-सत्य बचन भी अगर दूसरे को दुःखी करने के लिये बोला जाय अथवा शब्दों को पकड़ में आने पर भी दूसरे को धोख। देने के लिये आडी टेढ़ी शब्द रचना की जाय तो बहू असत्य हो कहलायगा ।
अंधे का तिरस्कार करने के लिये उसे अन्धा कहना, मुख को मूर्ख कहना भी, असत्य है। गाली देना आदि भी इसी असत्य में शामिल हैं, क्योंकि इससे दूसरे को अनुचित पीड़ा पहुँचती है । यह हिंसात्मक होने से असत्य है । हां, कभी कभी ऐसे वचन विरोधी हिंसा में भी शामिल होते हैं । जैसे कोई आदमी अपना अनुचित तिरस्कार करता हो, उससे बचने का सबसे अच्छा उपाय यही हो कि उसका भी कटु शब्दों से सत्कार किया जाय तो यह विरोधी हिंसा के समान क्षतव्य होगा। हाँ, इसमें मर्यादा का और आवश्यकता का विचार तो करना ही पड़ेगा।
अपना कोई शिष्य या पुत्रादि आलसीहो, उसको उद्योगी बनाने के लिये कभी कुछ कठोर बोलना पड़े तो यह असत्य न समझना चाहिये; परन्तु शर्त यह है कि ऐसे समय कषायका आवेश न हो, सिर्फ दूसरे के सुधार की भावना हो। साथ ही मर्यादा का