________________
५०
[ जैनधर्म-मीमांसा रूपका प्रचार किया हो, परन्तु इससे देशको कुछ हानि हुई हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता । हाँ, इससे अनेक राजाओंने जैनधर्म छोड़ दिया और सम्भवतः अनेक क्षत्रियः जातियाँ वैश्य बन गई, परन्तु ये परिवर्तन देशके पतन में कारण नहीं हुए । इससे जैनधर्म के प्रचार में बाधा पड़ी, उसके पालनेवालों की संख्या घट गई, परन्तु इससे राष्ट्रको कोई क्षति नहीं उठानी पड़ी।
आज जैनधर्म वैश्यों के हाथ में है, इसलिये उसका रूप कुछ दूसरा ही दिखलाई देता है । जैनपुराणों में वर्णित और आचारशास्त्र में कथित रूप नहीं दिखाई देता । वह दिखलाई देता तब, जब उसके पालन करनेवाले क्षत्रिय भी बचे होते । इसके कारण तो अनेक हैं परन्तु पिछले समय के धर्मगुरुओं का अहिंसा के विषय में अव्यावहारिक दुराग्रह भी कारण है, जिसका दुष्फल जैनसमाज को भोगना पड़ा है। फिर भी देशकी राजनीति पर उसका कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा है।
सार यह है कि जैनधर्म की अहिंसा का क्षत्रियत्व के साथ जरा भी विरोध नहीं है। हां, जैनधर्म इतना जरूर कहता है कि निरर्थक रक्तपात न होना चाहिये । रक्तपात जितना कम हो, उतना ही अच्छा । यह बात जैनपुराणों के चरित्रचित्रण से भी स्पष्ट होती है। उदाहरणार्थ-बाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता चुराने के कारण सिर्फ रावण ही नहीं मारा गया किन्तु कुम्भकर्ण इन्द्रजित वगैरह भी मारे गये । जैनपुराण इतनी हिंसा निरर्थक समझते हैं, इसलिये वे रावण का तो वध कराते हैं--क्योंकि उसका अपराध प्राणदंड क ही योग्य है-परन्तु इन्द्रजित कुम्भकर्ण वगैरह को कैद