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'[ जैनधर्म-मीमांसा सत्य होता है और तथ्य भी असत्य होता है। जैनाचार्योंने जो सत्य की व्याख्या की है उससे भी यही सिद्ध होता है । सवार्थसिद्धिकार कहते हैं
" असत शब्द प्रशंसावाची है, असत् अर्थात अप्रशस्त । जो प्राणियोंको दुःख देनेवाला है वह अप्रशस्त है, भले ही वस्तु. स्थिति की दृष्टिसे वह ठीक हो या न हो । क्योंकि अहिंसा के पालन के लिये बाकी व्रत हैं, इसलिये हिंसा करनेवाले, दुःख देने वाले वचन अनुत हैं ।"
महाभारतकार भी कहते हैं----
सत्य (तथ्यपूर्ण) का बोलना अच्छा है परन्तु सत्यकी अपेक्षा हितकारी बोलना अच्छा है । जो प्राणियोंके लिये हितकारी है, वही मेरे मतसे सत्य है । *
इसके समर्थन में जैनशास्त्रोकी गुणस्थानचर्चा--जो कि एक महत्त्वपूर्ण असाधारण चर्चा है--भी सहायक है । आत्मिक विकासके क्रमके अनुसार जैनियोंने प्राणियोंकी चौदह श्रेणियाँ की हैं । पाँचवीं
म सच्छब्दः प्रशंसावाची न सदपदप्रशस्तमिति यावत् । प्राणिपाड़ाकर यत्तदप्रशस्तम् । विद्यमानार्थविषयम्वा अविद्यमानार्थविषयम्वा । उक्तं च-प्रागेव अहिंसाप्रतिपालनामितरव्रतमिति तस्माद्धिसाकर्मवचोऽनृतमिति निश्चेयम् । * सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेन । यभूतहितमत्यन्तम् एतत्सत्यं मतं मम ॥
-शान्तिपर्व ३२६,-१३, २८७-१९ । अथवा-'यदभूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा।'
-वनपर्व २०९-४।