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अहिंसा ]
[ ५५ श्रेणीमें प्राणी असल्यका आंशिक त्यागी होता है, और लट्ठी श्रेणी (प्रमत्तविरत ) में पूर्णत्यागी । छट्ठी श्रेणीमें पहुँचा हुआ मनुष्य सत्य महाव्रतका पूर्ण पालक होता है, फिर भी जैनशास्त्रोंके अनुसार असत्यवचनयोग बारहवीं श्रेणी तक रहता है । इसका मतलब यह हुआ कि छट्ठीसे बारहवीं श्रेणी तकके मनुष्य असत्य या अतथ्य भाषण तो करते हैं, परन्तु इससे उनका सत्य महाव्रत भंग नहीं होता । इससे यह बात स्पष्ट होती है कि जैनशास्त्रोंके अनुसार अतध्य होकरके भी सत्य होता है और तथ्यपूर्ण होकरके भी असत्य होता है | सत्यासत्यका निर्णय अर्थको देखकर नहीं, किन्तु कल्याण को देखकर किया जाना चाहिये । जैनशास्त्रों में ऐसा ही कथन है ।
कुछ यूरोपियन ग्रंथकार सत्यकी इस व्याख्यापर आक्षेप करते हैं परन्तु यूरोपियन नीतिशास्त्रज्ञों में ऐसे बहुतसे हैं जो उपर्युक्त व्याख्याका समर्थन करते हैं । लेस्ली स्टीफनका कहना है- .
" किसी कार्यको परिणामकी ओर ध्यान देने के बाद ही उसकी नीतिमत्ता निश्चित की जानी चाहिये । यदि मेरा यह विश्वास हो कि झूट बोलने ही से कल्याण होगा तो मैं सत्य बोलने के लिये कभी तैयार नहीं रहूंगा । मेरे इस विश्वास में यह भाव भी हो सकता है कि इस समय झूठ बोलना ही मेरा कर्तव्य है"।
नीतिशास्त्र के ग्रन्थलेखक-बेन, वेवेल. आदि अन्य अंग्रेज पंडितों का ऐसा ही मत है।
तथ्य को असत्य और अतथ्य को सत्य सिद्ध कर देने पर भी सत्यासत्यकी समस्या हल नहीं हो सकती, व्यवहार में इससे बहुत अड़चने आ सकती हैं। लोग मनमाना झूठ बोलेंगे, फिर भी कहेंगे कि