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[जैनधर्म-मीमांसा
रहे । जब आग बुझ गई, सब जानवर चले गये तब तुमने भी
चलने की कोशिश की । परन्तु अङ्ग अकड़ जाने
से गिर पड़े
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और कुछ दिन समभाव कष्ट सहकर श्रेणिक पुत्र मेघकुमार हो गये । एक पशु के भव में तुममें इतनी दया, सहनशक्ति और विवेक था, परन्तु यह कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्यभव प्राप्त करके इतनी अच्छी सत्संगति में रहकर भी तुममें आज राजमद और असहिष्णुता है ।"
म० महावीर को मेघकुमार के पुराने भव याद आये कि नहीं - यह तो वे ही जानें, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि मेघकुमार का उद्धार हो गया । उसका राजमद आंसू बनकर वह गया । वह पवित्र मनुष्य बन गया ।
इस प्रकार अध्यभाषण से सत्यव्रत भंग तो क्या दूषित भी नहीं होता । महात्मा ईसा के शिष्य 'पाल' कहते हैं
"यदि मेरे असत्यभाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है तो इससे मैं पापी कैसे हो सकता हूं ?" परन्तु जैसे मैंने शारीरिक रोगी के विषय में कहा है कि इस नियम का उपयोग बड़ी सतर्कता से करना चाहिये, उसी प्रकार मैं यहां भी कहता हूं कि धार्मिक मामलों में भी इस प्रकार के असत्य का प्रयोग बहुत सतर्कता से करना चाहिये । अगर इस से जिज्ञासु लाभ उठा सके, उसका कल्याण हो तो ठीक है, नहीं तो इसका प्रयोग खतरे से खाली नहीं है । उदाहरणार्थ- हजार दो हजार वर्ष पहिले लोग जैसी कल्पनाओं पर विश्वास कर लेते थे उन कल्पनाओं पर आज अगर वैज्ञानिक सत्य का रूप दिया जाय,