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सत्य ]
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अनुचित प्रतिज्ञा करके केवल युधिष्ठिर का नहीं, किन्तु मनुष्यमात्र
का अपराध किया था ।
इसी प्रकार आज कोई किसी मिध्यात्वीके चक्कर में पड़कर यह प्रतिज्ञा करले कि मैं अमुक वर्गको अछूत समझंगा, हरिजनों का स्पर्श न करूँगा, पीछे उसे अपनी भूल मालूम हो
कि मनुष्य
अवस्था में
को पशुओं से भी नीच समझना घोर पाप है, मिथ्यात्वी के द्वारा दी हुई इस पापमय प्रतिज्ञाक । सत्य की रक्षा करना है ।
कर देना ही
ऐसी
नष्ट
एक आदमीने जनेऊ पहिरने की प्रतिज्ञा यह समझकर ली है कि जिससे मैं शूद्र न कहलाऊँ । पीछे उसे मालूम हुआ कि शूद्रको, हमारे समान सदाचारी होनेपर भी अगर जनेऊ पहिरने का हक नहीं है तो जनेऊ पहिरना पाप है क्योंकि इससे मनुष्य मनुष्यका अपमान करता है, अहंकार की पूजा करता है । ऐसी अवस्था में जनेऊ की प्रतिज्ञा को और जनेऊ को तोड़ डालना ही सत्य की रक्षा रखना है । इस प्रकार और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं ।
करादी गईं प्रतिज्ञाएँ
इसी श्रेणी में नासमझी में की गई या भी शामिल हैं । जैसे किसी अबोध बालिका विवाह कर दिया गया, विवाह के समय सप्तपदी उससे पढ़ा दी
का किसी के साथ
कि जिस के साथ
दाम्पत्य जीवन निभ
गई; परन्तु होश सम्हालने पर वह देखती हैं विवाह हुआ है वह वृद्ध है, उसके साथ मेरा नहीं सकता, तब वह उस सम्बन्धको तोड़ प्रतिज्ञाभंग का दोष नहीं लग सकता । इसी नियम के अनुसार
डाले तो इस में उसे