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सत्य] जैसे त्रियोंको देवी और पुरुषोंको देव कहना । आदर होनेपर ऐसे शब्दोंका * प्रयोग किया जाता है । जैसे देवोंने महावीर निर्वाण का कल्याणक किया । यहाँ देव शब्दका अर्थ श्रेष्ठ मनुष्य करना चाहिये । मनुष्योंमें देव देवी शब्दका प्रयोग करनेवाले को कोई मिध्यावादी कहे तो यह ठीक नहीं।
स्थापना- मर्शि आदि में किसी की स्थापना करके हम मर्ति को भी उसी नामसे कहने लगे। जैसे कुण्डल पुर जाकर मैंने महावीर भगवान् की वन्दना की । वाक्यमें महावीर का अर्थ महावीरप्रतिमा है, इसलिये इस प्रकार बोलनेवाला असत्यवादी नहीं कहला सकता । यह स्थापना सत्य है।
नाम--अर्थ का अर्थात गुणागुण का विचार न करके व्यक्ति को अलग पहिचानने के लिये जो संज्ञा रक्खी जाती है उसके अनुसार बोलना नामसत्य है । जैसे यह देवदत्त है, ऐसा कहने पर कोई कहे कि तुम झूठ क्यों बोलते हो ? क्या यह देव-दत्त है ? क्या इसे देवने दिया है ? यह आरोप व्यर्थ है, क्योंकि यह नाम सत्य है।
रूप-रूपादिगुण की अपेक्षा किसी का वर्णन करना रूप सत्य है । जैसे अमुक मनुष्य बहुत सुन्दर है । इस पर कोई कहे कि हाडमांस का देह कैसे सुन्दर हो सकता है ? तो यह ठीक नहीं, यहां सिर्फ रूप का विचार है । इसी प्रकार रस गंधस्पर्श पर भी विचार करना चाहिये । रूप तो यहां गुण का उपलक्षण है।
__ अथवा बहुभाग की अपेक्षा कुछ वर्णन किया जाय तो वह
* देव देवैरपिनातं विज्ञाप्य अयतामेदम् । क्षत्र चडामणि ! शोक न मुश्चति मनागमि देव देवी ॥ चन्द्रप्रभचारत