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[ जैनधर्म-मीमांसा अहिंसा हो या अन्य किसी धर्म को अहिंसा हो, सब के विषय में यही बात कही जा सकती है। किसी वस्तु की परीक्षा करते समय सिर्फ उसके दुरुपयोग पर ही नजर न रखना चाहिये, किन्तु उसके वास्तविक रूप पर दृष्टि डालना चाहिये, इस दृष्टि से जैनी अहिंसा पर विचार किया जाय तो वह अनुचित न मालूम होगी, किन्तु अनेक दृष्टियों से उसमें उपयोगी विशेषताएँ मालूम होगी ।
सत्य
जैसे को तैसा कहना सत्य है । परन्तु यह सत्य ज्ञानके क्षेत्रका सत्य है । धर्म के क्षेत्रका सत्य इससे भिन्न है। धर्म तो जगत्-कल्याण के लिये है इसलिये धर्म के क्षेत्र में वही वचन सत्य कहा जा सकता है जो कल्याणकर हो। इसलिये दोनों सत्योंका भेद समझने के लिये मैं जुदे जुदे शब्द रख लेता हूँ। जैसे को तैसा कहना तथ्य है, और कल्याणकारी वचन सत्य है । यद्यपि अनेक स्थलोंपर तथ्य और सत्य में विरोध नहीं होता, फिर भी अनेक मौके ऐसे आते हैं जब तथ्य और सत्य में विरोध पैदा हो जाता है । इस विरोध का समझना ही मुश्किल है । एक चोर कह सकता है कि अगर मैं तथ्य बोलूंगा तो चोरी न कर सकूँग, इससे दुखी होना पड़ेगा, इसलिये मेरा अतथ्य बोलना भी सत्य कहलाया इस प्रकार तथ्य और सत्य के विरोध माननेसे सत्य की हत्या ही हो जायगी । इसलिये किस जगह अतथ्य भी सत्य है, किस जगह तथ्य भी असत्य है, इस विषय में गंभीर सतर्कता की जरूरत है।
जिस प्रकार पहिले हिंसाके संकल्पी आदि चार भेद किये गये थे, उसी प्रकार हमें असत्य अर्थात् अतथ्य के भी चार भेद