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[ जैनधर्म-मीमांसा
अगर किसी ने अहिंसा की ओट में कायरता को छिपायी हो तो इसमें न तो कोई आश्चर्य की बात है न इससे अहिंसा की निन्दा की जा सकती है। संसार में ऐसा कोई गुण नहीं है जिसके नाम का दुरुपयोग नहीं किया जाता हो ।
जैनधर्म ने अहिंसा पालन की ऐसी कड़ी शर्त कहीं नहीं लगाई जिससे एक राजा को या क्षत्रिय को या किसी को भी अपने लौकिक कर्तव्य से च्युत होना पड़े। अगर कोई राजा जैन हो जा और वह गृहस्थोचित अहिंसा व्रत ( अणुत्रत) का पालन करने लगे तो वह प्रजा को दंड न दे सकेगा या प्रजा की रक्षा के लिये युद्ध न कर सकेगा - यह बात न तो जैनधर्म के आचारशास्त्र से सिद्ध होती है न जैन कथा-ग्रन्थों के चरित्रचित्रणों से मालूम होती है ।
गृहस्थ विरोधी हिंसा का त्यागी नहीं है, कर सकता है -- यह बात तो प्रायः सब जगह जैनाचार्यों ने जहां युद्धादि का वर्णन किया है वहां यह बात भी दिखलाई है कि अणुव्रती लोग भी सैनिक जीवन व्यतीत करते थे । रविषेणकृत पद्मचरित में जहां सैनिकों का वर्णन है वहां स्पष्ट कहा है कि कोई सैनिक सम्यग्दृष्टि है. कोई अणुव्रती ५ है ।
जैन - पुराणों में युद्ध और दिग्विजय के खूब ही सुन्दर और विस्तृत वर्णन आते हैं, और ऐसा कहीं नहीं लिखा कि युद्धों से किसी का जैनत्व नष्ट हो गया या वह अणुव्रती नहीं रहा । जैनियों
४ सम्यग्दर्शनसम्पन्नः शूरः कश्चिदणुव्रती ।
पृष्ठतो वीक्ष्यते पल्या पुरस्त्रिदशकन्यया ॥ ३-१६८ ॥
इसलिये वह युद्ध
मिलती है और
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