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[ जैनधर्म-मीमांसा करते हैं, तब यह नहीं कहा जा सकता कि जैन होने से कोई युद्ध के काम का नहीं रहता । जैनशास्त्रों में आये हुए जैन महापुरुषों की अगर गिनती लगाई जाय तो सौ में निन्यानबे से अधिक महापुरुष तो क्षत्रिय-वर्ण के ही मिलेंगे । इससे कहा जा सकता है कि जैनधर्म सार्वधर्म होनेपर भी विशेषतः क्षत्रियों का धर्म है अथवा यों कहना चाहिये कि क्षत्रियों ने इस धर्म से विशेष लाभ उठाया है और क्षत्रिय-वर्ण तो एक युद्ध गीवी वर्ण रहा है । इससे कोई कहे कि जैनधर्म की अहिंसा ने भारतीयों को युद्धविमुख बना दिया और इससे वे पराधीन हो गये तो उसका यह कहना अहिंसा और खासकर जैनधर्म की अहिंसा से नासमझी प्रगट करना है, साथ ही उसपर अन्याय करना है।
शंका- आप पार्श्वनाथ के पहिले जैनधर्म का अस्तित्व अधेरे में मानते हैं, फिर यहाँ अरिष्टनेमि, शान्तिनाथ, कुन्थनाथ, राम, रावण आदि के नामों का उपयोग क्यों करते हैं ? ये सब पार्श्वनाथ के पहिले के हैं इसलिये जैनी अहिंसा को समझाने के काम में ये नहीं आ सकते।
समाधान-- कोई चरित्र कल्पित हो या तथ्यपूर्ण, परन्तु उसके चित्रण में चरित्रनिर्माताका हृदय रहता है। मानलो राम रावण आदि की कथाएँ बिलकुल कल्पित हैं, परन्तु उससे इतना तो मालूम होता है कि कथाकार राम और सीताको पुरुष और स्त्री का आदर्श मानता है । इसी प्रकार जैन ग्रन्थकारोंकी कथावस्तु कल्पित भले ही हो, परन्तु उससे उन ग्रन्थकारोंका हृदय मालूम होता है । इस प्रकार इतिहास की अपेक्षा भी इन कल्पित कथाओंका महत्व