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अहिंसा ] ..
[४७ तथा उपयोगिता बढ़ जाती है, क्योंकि इतिहास से तो हमें इतनाही मालूम होता है कि क्या हुआ , परन्तु कल्पित कथा से या इच्छानुसार परिवर्तित कथासे हम यह जान सकते हैं कि क्या होना चाहिये । मैंने जो उपर्युक्त उदाहरण लिये, वे ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं, किन्तु जैनदृष्टि को समझाने की दृष्टिसे । इस दृष्टिसे तो तथ्यपूर्ण चरित्रों की अपेक्षा कल्पित चरित्र अधिक उपयोगी होते हैं।
शंका-- जैनधर्म की अहिंसा भले ही मनुष्य को कायर न वनाती हो और जैनचार्यों ने भले ही अपने शुभ स्वप्नों का चित्रण चरित्रग्रन्थों में किया हो, और सम्भव है म.महावीर के समयके आसपास उसका ऐसाही रूप रहा हो, परन्तु पीछे से जैन समाज अवश्य ही एक कायर समाज बन गया; इतना ही नहीं, किन्तु उसने समाज पर एक ऐसी छाप मारी कि सभी लोग कायर हो गये । यही कारण है कि भारतवर्ष को गुलामी की जंजीरें पहिनना पड़ी हैं।
समाधान-- पिछले सवा दो हज़ार वर्ष के इतिहास पर अगर नज़र डाली जाय तो हमें सम्भवतः एक भी उदाहरण न मिलेगा कि जैनी अहिंसा ने देश को गुलाम बनाया हो। सिकन्दर से लेकर अंग्रेजी लड़ाइयों तक जितने युद्ध हुए हैं, और उनमें जहाँ जहां भी भारतीयों का पराजय हुआ है, वहाँ वहां मुख्यतः फूटने तथा राष्ट्रीयभावना के अभाव ने काम किया है । कहीं कहीं अन्धविश्वास या चौकापन्थी मूढ़ताने भी पराजित होने में सहायता पहुंचायी है । सिकंदर की पोरस पर जो विजय हुई थी उसका कारण