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[ जैनधर्म-मीमांसा भाइयों का अविवेक अत्यन्त दयनीय है | वे वास्तव में प्राणिवध को उत्तेजना देते हैं । एक कसाई पशु खरीदता है, इसलिये कि वह उसे मारकर उसके शरीर से अधिक पैसा पैदा करे । परन्तु एक जैनी भाई उसको पूरे दाम देकर उसके परिश्रम को बचाता है और इस तरह और भी जल्दी अधिक पशु मारनेके लिये उत्तेजित करता है । अगर ऐसा नियम होता कि जिसने पैसा लेकर पशु छोड़ दिया वह अब पशुवध न करेगा तो यह ठीक था; किन्तु जब वह अच्छी तरह पशुवध करता रहता है तब उसे पैसा देकर पशु छुड़ाना-पशुवध के लिये आर्थिक उत्तेजन देना है । पशुवध के रोकने का इलाज तो यह है कि उनके मन में अहिंसा का भाव पैदा किया जाय । पशुओं का इस तरह पालन किया जाय, जिससे उनकी उपयोगिता बढ़े आदि । मैंने देखा है कि पर्युषण के अवसर पर जब जैनी लोग मन्दिर आदि के लिये जाते हैं और रास्ते में अगर कोई तालाब पड़ता है तो उस दिन बीसों मछलीमार सिर्फ इसलिये मछली मारने लगते हैं कि जैन लोग पैसे देकर मछलियां छुड़ायगे । अगर जैनी लोग इस प्रकार प्रलोभन उन के सामने न रखें तो वे इस प्रकार मछलियां मारनेके लिये उत्तेजित न हों। यह याद रखना चाहिये कि धर्म का पालन केवल हृदयकी कोमलता से नहीं होता, उसके रिये विवेक और विचारशक्ति की भी ख़ास ज़रूरत है, अन्यथा मिथ्यादृष्टि के तपकी तरह वह निरर्थक ही होता है।
६-कभी कभी मनुष्य अपनी महत्ताका प्रदर्शन करने के लिये अथवा कायरतावश या द्वेषवश सूक्ष्म हिंसा बचाने के बहाने से