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अहिंसा ]
करे या मुनि, एक ही बात है । योग्यता, अयोग्यता की संघटना की बात दूसरी है, परन्तु धर्माधर्म की कुछ अन्तर नहीं पड़ता ।
प्रश्न--क्या जो श्रावक का कर्तव्य है, वह मुनिका भी अवश्य है ? दोनों का कर्तव्य-क्षेत्र क्या बिलकुल एक है ? यदि हाँ, तो दोनों में अन्तर क्या है ?
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की या संस्था दृष्टि से उसमें
उत्तर - श्रावक और मुनि का भेद कार्य का भेद नहीं है किन्तु आसक्ति अनासक्ति का भेद है । जो अनासक्त रहकर कार्य करता है वह मुनि है । जिसकी आसक्ति मर्यादित है, वह श्रावक है । जिसकी आसक्ति अमर्याद है वह असंयमी है । जो कर्तव्य सामान्यतः कर्तव्यरूपमें निश्चित हुआ हो, वह सभी के लिये कर्तव्य है | और जो अमुक व्यक्ति या व्यक्ति समुदाय । की अपेक्षा कर्तव्य माना गया हो वह उसी व्यक्ति या समष्टि के के लिये कर्तव्य है । जैसे मन्दिर में जाकर देवकी पूजा करना उसी के लिये कर्तव्य है, जिसको उसकी जरूरत हो, महात्माओं के लिये नहीं । कर्तव्य का भेद मुनि श्रावक का भेद नहीं है, किन्तु भावना और जरूरत का भेद है । यह बात दूसरी है कि अनासक्त जीवन बिताने के लिये द्रव्यक्षेत्र कालभाव के अनुसार मुनि जीवन के बारूप अनेक प्रकार के हों ।
९ -- धर्म का लक्ष्य कल्याण है
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। कभी कभी जीवन कल्याण का विरोधी हो जाता है, उस समय कल्याण के लिये जीवन का त्याग करना पड़ता है । परन्तु उसे आत्महत्या नहीं कहते । उदाहरणार्थ, सल्लेखना या समाधिमरण की क्रिया ऐसी ही है। जब