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अहिंसा ]
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कर्तव्यच्युत होता है । हितोपदेश में एक कथा आती हैं कि एक गीदड़ने अपने मित्र हरिण को इसलिये जाल से न छुड़ाया था कि जाल ताँत का बना था। मांसमक्षी गीदड़ का यह बहाना जैसा दंभ था, इसी प्रकार का दंभ सैकड़ों मनुष्य करते हैं। 'अमुक आदमी दवाखाने में ऑपरेशन कराने गया है, न मालूम क्या खायगा इसलिये मैं उसकी सेवा नहीं कर सकता ।'' अगर मैं उसको उपदेश दूँगा तो वायुकाय के जीव मरेंगे, इसलिये उसे सचाई पर लगाने के लिये उपदेश नहीं दे सकता, इस प्रकार बीसों बहाने बनाकर मनुष्य कर्तव्यच्युत होता है । कोई कोई लोग तो सिर्फ इसलिये परोपकार नहीं करते — उसे मरने से भी बचाने की चेष्टा नहीं करते - कि अगर वह जीवित रहेगा तो न मालूम क्या क्या पाप करेगा इसलिये मैं उसे नहीं बचाऊँगा । वास्तव में यह अज्ञान है। क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार ऐसे मनुष्यों को बच्चे भी पैदा न करना चाहिये अगर पैदा हो जाँय भी न करना चाहिये क्योंकि न मालून वह बच्चा युवा क्या पाप करेगा ? इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार समाज का नाश ही हो जावेगा, कल्याण का मार्ग ही नष्ट हो जायगा । प्रथम अध्याय में बताये हुए कल्याणमार्ग के अनुसार कल्याणवृद्धि के लिये जीवन को परोपकारमय बनाने की आवश्यकता है । अगर अपने को मालूम हो जाय कि अमुक प्राणी के जीवित रहने से उसी के समान या उससे महान् अन्य अनेक प्राणियों का वध अवश्यम्भावी है तो इस दृष्टि से उसका न बचाना ही नहीं, किन्तु वध करना तक कर्तव्य होगा । किन्तु, जो प्राणी इस श्रेणी में नहीं
तो
उनका पालन
होकर क्या